प्रथम अपील और द्वितीय अपील के सम्बन्ध में सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधान

 

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अपील 

अपील वह माध्यम है जिसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts) द्वारा की गई त्रुटि के निवारण का अवसर प्राप्त होता है। अपील केवल वहीं की जा सकती है जहाँ ऐसा करने का अधिकार किसी संविधि की शक्ति रखने वाले नियम द्वारा प्रदान किया गया है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 96 से 112 तथा आदेश 41 से 45 में अपील सम्बन्धी प्रावधान दिये गये हैं। संहिता की धारा 96 से 99 तक तथा आदेश 41 में मूल डिक्रियों की अपील तथा धारा 100 से 103 एवं आदेश 42 में द्वितीय अपील का उपबंध दिया गया है।

 

अपील कौन कर सकता है?

निम्नलिखित व्यक्ति किसी मामले में डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकते हैं:-

(1) कोई भी व्यक्ति जो वाद का पक्षकार रहा हो और उसके हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है.

(2) ऐसे पक्षकार की यदि मृत्यु हो गई है तो उसका विधिक प्रतिनिधि

(3) पक्षकारों के हितों का अंतरिती;

(4) नीलामी क्रेता ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है जिसके माध्यम से निष्पादन में डिक्री को धोखे के आधार पर निरस्त कर दिया गया है।


अपील का आधार क्या है?   

धारा 96 के अंतर्गत अपील करने के लिए निम्नलिखित आधार होने चाहिए

(1) अपील की विषय वस्तु डिक्री होनी चाहिए।

(2) ऐसे अवधारण से जो पक्षकार अपील कर रहा है उसके हित पर विपरीत प्रभाव पड़ा हो।


प्रथम अपील

हर अपील, अपील के एक ज्ञापन के रूप में की जाती है जो अपीलार्थी और उसके प्लीडर द्वारा हस्ताक्षरित होती है। अपील के ज्ञापन के साथ उस डिक्री की एक प्रति होती है जिसके विरुद्ध अपील की जाती है। यह अपील का अधिकार किसी पक्षकार में उस दिन निहित हो जाता है जिस दिन वह वाद संस्थित करता है।

प्रथम अपील कब की जा सकती है?

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 96 के अनुसार प्रथम अपील निम्नलिखित डिक्रियों की हो सकती है -

(1) ऐसी हर डिक्री जो आरम्भिक अधिकारिता रखने वाले न्यायालय द्वारा पारित की गई हो;

(2) एक पक्षीय पारित मूल डिक्री की अपील;

(3) लघु वाद न्यायालय द्वारा संज्ञेय वाद में किसी डिक्री की अपील जहाँ ऐसी डिक्री की रकम दस हजार रुपये से अधिक हो।


द्वितीय अपील

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 से 103 तथा आदेश 42 में द्वितीय अपील का उपबन्ध दिया गया है, द्वितीय अपील हमेशा उच्च न्यायालय में की जा सकती है। सिविल विधि संशोधन अधिनियम, 1976 के पहले द्वितीय अपील केवल उसी डिक्री के विरुद्ध की जा सकती थी जहाँ पर अपील की विषय-वस्तु बीस हजार रुपये से अधिक होती थी परन्तु सिविल विधि संशोधन अधिनियम, 1976 के बाद धारा 100 में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया गया और अब धारा 100 के प्रावधानों के अनुसार उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा अपील में पारित प्रत्येक डिक्री की न्यायालय में अपील हो सकेगी, यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उस मामले में विधि का कोई सारवान प्रश्न निहित है।

इस धारा के अधीन एक पक्षीय पारित डिक्री की अपील उच्च न्यायालय में हो सकेगी। विधि का सारवान प्रश्न किसे कहते हैं इसका निर्धारण सर्वोच्च न्यायालय ने चुन्नी लाल मेहता बनाम सेचरी स्पिनिंग मिल, सु. कोर्ट 162 के वाद में किया जिसके अनुसार सारवान प्रश्न का निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित शर्ते होनी चाहिए

(1) प्रश्न ऐसा हो जो मामले के विनिश्चय के लिए आवश्यक हो;

(2) ऐसे मामले पर सर्वोच्च न्यायालय,उच्च न्यायालय, प्रिवी कौंसिल या किसी संघीय न्यायालय का कोई निर्णय हो;

(3) प्रश्न ऐसा हो जिस पर उच्च न्यायालय संदेह की स्थिति मे हो;

(4) सुविधा का संतुलन वादी के हित में हो।


यदि अधीनस्थ न्यायालय का निष्कर्ष अभिलेख से दर्शित होता है कि साक्ष्यों एवं तर्कों के विपरीत है तो ऐसा निष्कर्ष धारा 100 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किया जा सकता है।

 

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